पहुंचे हैं कहाँ मालूम नहीं
अब अपने भटकते क़दमों को
मंजिल का निशां मालूम नहीं
हमने भी कभी इस गुलशन में
एक ख्वाबे बहारा देखा था
कब फूल झडे कब गर्द उडी
कब आई खिज़ा मालूम नहीं
बर्बाद वफ़ा का अफसाना
हम किससे कहें और कैसे कहें
खामोश हैं लब और दुनिया को
अश्कों की जुबां मालूम नहीं
Thursday, February 23, 2012
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2 comments:
I'm Sorry.. WHAT ???
Sonnet of a jobless MBA grad. You obviously cannot relate to it - neither MBA nor jobless!
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